सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी द्वारा की गुरुसेवा एवं उनका शिष्यत्व

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‘शिष्य डॉ. जयंत आठवलेजीके गुरु प.पू. भक्तराज महाराज (प.पू. बाबा) सदैव कहते थे, ‘सन्तोंसे लूटी जानेवाली दो वस्तुएं हैं – नाम और सेवा !’ डॉ. आठवलेजीने अपने गुरुसे ये दोनों बातें भरपूर लूटीं; क्योंकि गुरुके सान्निध्यमें उनका अखण्ड नामजप होता था और ‘चित्तको आपकी सेवामें नियुक्त कर दिया है, अब कोई कार्य शेष नहीं है’, ऐसी उनकी वृत्ति ही बन गई थी । उन्होंने गुरुचरणोंमें तन-मन-धन अर्पण कर परिपूर्ण सेवा की । इसीलिए गुरुने भी उनसे कहा था, ‘डॉक्टर, मैंने आपको ज्ञान, भक्ति और वैराग्य प्रदान किया !’

शिष्य जब अपना तन-मन-धन गुरुको अर्पण करता है, तब उसके स्वामित्वकी प्रत्येक वस्तु ही नहीं, अपितु उसके मनका प्रत्येक विचार भी गुरुका ही होता है । डॉक्टरजीकी स्थिति भी ऐसी ही होती थी । उनके मनका प्रत्येक विचार प.पू. बाबाका ही है, ऐसी प्रतीति उन्हें होती थी । इससे स्पष्ट होता है कि ‘डॉक्टरजीका शिष्यत्व कितने उच्च स्तरका था ।’ उनके शिष्यत्वकी विविध छटाएं दर्शानेवाला यह ग्रन्थ साधकोंकी ‘आदर्श शिष्य’ बननेमें अमूल्य सहायता करेगा ।

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सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी द्वारा की गुरुसेवा एवं उनका शिष्यत्व

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